करन जौहर ने राजमौली के साथ सेल्फी शेयर करते हुए उनको वर्तमान का महान निर्देशक मान लिया हैं..रामगोपाल वर्मा ने तो हाथ ही खड़े कर दिए हैं..आमिर,सलमान,शाहरुख के होश फाख्ता हैं कि ये सब क्या हो रहा भाई ? न ईद न दीवाली, न होली न क्रिसमस..आईपीएल के बुखार में डूबता-उतराता भारत आज बाहुबली देखने के लिए क्यों मरा जा रहा..?
यहाँ तो अपनी एक फिल्म हिट कराने के लिए क्या-क्या नहीं प्रोपगेंडा करना पड़ता है...प्रमोशन से लेकर पीआर पर करोड़ों रुपया खर्च कर देना पड़ता है.. लेकिन जनता आज तक इस कदर कभी पागल न हुई..थियेटर का माहौल कभी ऐसा नहीं हुआ..आज थिएयर का माहौल ऐसा लग रहा मानों हाउसफूल इडेन गार्डन में सचिन पाकिस्तान के खिलाफ क्रीज पर डटें हों..चिल्लाती भीड़ के बीच आखिरी ओवर में बारह रन बनाना हो.या फिर दुबई क्रिकेट स्टेडियम में नरेंद्र मोदी आज अप्रवासी भारतीयों को सम्बोधित करने वाले हों..
ये माहौल देखकर बड़े-बड़े ट्रेड पंडित ही नहीं..सिनेमा के दिग्गज इस कदर हैरान हैं कि आज एक नामी फिल्म समीक्षक ने महेश भट्ट के हवाले से कहा है कि "भारतीय फिल्मों का इतिहास जब लिखा जाएगा तो बाहुबली के पहले और बाहुबली के बाद जरूर लिखा जाएगा...
कुछ का हाल तो गजब बेहाल है.वो बाहुबली के वीएफएक्स को कमजोर और संगीत को बेकार बता रहें हैं..एक प्रख्यात फिल्म समीक्षक जो अभी कुछ दिन पहले "अनारकली आफ आरा" को सदी की सबसे महानतम फिल्म घोषित कर चुकें हैं,उन्हें इस फिल्म में नरेशन ही नहीं मिल रहा है..एक वामपंथी साहित्यकार को इसलिए दिक्कत है कि इस फिल्म में एक भी मुसलमान क्यों नही है..?
इधर कम्बख्त जनता है कि उसे न किसी ट्रेड पंडित की चिंता है न किसी समीक्षक की..न किसी साहित्यकार की..दुनिया भाँड़ में जाए उसे तो बस यही पता करना है कि "कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा" ?
मित्रों..फ्रायड ने एक जगह कहा कि "साहित्य अभुक्त काम का परिणाम है"..मुझे फ्रायड की ये बात साहित्य से एक किलो ज्यादा सिनेमा पर सटीक लगती है..
तभी तो गिनती की कालजयी और यथार्थ परक फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हमारा लोकप्रिय भारतीय सिनेमा बाज़ारवाद का शिकार होकर हमारे सामने आज तक क्या परोसता रहा है...? वही पश्चिम का चकाचौंध..स्विटजरलैंड के आइस लैंड और लन्दन की सड़कें...कपड़ा न पहनने की कसम खा चूकी अभिनेत्री.. किसी बहाने हिरोइन को दबोचने वाला हीरो..फूहड़ कॉमेडी.बकवास डायलाग और सेक्स,इमोशन,ड्रामा का कॉकटेल...इसे ही देकर लोगों की दमित कामुकता को भुनाया जाता रहा है.
हर दशक में समय के साथ इनकी मात्रा और जरूरत बढ़ती गयी.आज उसी जरूरत का नतीजा है कि चाहें कहानी कुछ भी हो.. हीरो हीरोइन को बेड पर ले जाकर कुछ ऊंच-नीच न कर दे तब तक फिल्म कम्बख्त हीट नहीं मानीं जाती..चाहें वो किसी महान खिलाड़ी की बायोपिक फिल्म हो या बाजीराव पेशवा के वीरता की गाथा.इस सेक्सुली फ्रस्ट्रेट देश में हीरो की रोमांटिक इमेज एक निर्देशक को बनानी ही पड़ती है.क्योंकि निर्देशक को लगता है कि ये बाजार की मांग है..
शायद इस कारण से इन भारतीय फिल्मों ने जितना समाज को विकृत किया है..उतना शायद ही किसी ने किया हो..बॉलीवुड का एक बड़ा धड़ा एक अरसे से कथित वामपंथी प्रगतिशीलता का शिकार रहा है...और उससे बड़ा कारण ये भी रहा कि हमारा बॉलीवुड हॉलीवुड के पीछे आंख बंद करके भागता रहा है.
ये सब सोच के हैरानी होती है कि दुनिया के सबसे सम्पन्न बौद्धिक और सांस्कृतिक देश में भारत के फिल्मकार अपनी जड़ों को भूलकर पश्चिम क्यों भागने लगे ?...उस देश रहकर..जहां हजारों साल पहले भरत ने नाट्य शास्त्र जैसा अद्भुत और वैज्ञानिक ग्रन्थ लिख दिया था... ऐसा ग्रन्थ कि आज भी ध्वनि के बड़े से बड़े वैज्ञानिक हैरान हैं कि आखिर संस्कृत के एक श्लोक में ध्वनि की इतनी सूक्ष्मतम से सुक्ष्मतम गणना कैसे की जा सकती है....उस ध्वनि की, जिसे नापने के लिए हम आज तक कोई यन्त्र नहीं बना पाए.
नाट्यशास्त्र पढ़ने के बाद लगता है कि हजारों साल पहले इस देश में नाटक,गीत, संगीत को लेकर इतनी सूक्ष्म,वैज्ञानिक और मौलिक समझ विकसित थी कि हम तो आज कहीं नहीं हैं..। फिर भी हम भगे जा रहे..कहाँ ?
नाट्यशास्त्र छोड़िये...संस्कृत का नाम आते ही हमारे सामने कालीदास प्रगट हो जाते हैं..लेकिन सिर्फ वही क्यों संस्कृत में भास जैसे सैकड़ों महान नाटककर हुए हैं कि उनके सामने पॉपुलर वैश्विक साहित्य और नाटक कहीं नहीं ठहरता..भास के सिर्फ एक नाटक 'स्वप्नवासवदत्त' के आगे बड़े से बड़ा पॉपुलर रोमांटिक,थ्रीलर,सस्पेंस पानी भरने लगेगा.ऐसा मुझे लगता है.लेकिन ये बात उन भारतीय फिल्मकारों को आज तक समझ क्यों नहीं आई.?..जिनको नाट्यशास्त्र से पहले लंदन से फिल्म मेकिंग में डिप्लोमा करना ज्यादा जरूरी लगा....
यहाँ तो अपनी एक फिल्म हिट कराने के लिए क्या-क्या नहीं प्रोपगेंडा करना पड़ता है...प्रमोशन से लेकर पीआर पर करोड़ों रुपया खर्च कर देना पड़ता है.. लेकिन जनता आज तक इस कदर कभी पागल न हुई..थियेटर का माहौल कभी ऐसा नहीं हुआ..आज थिएयर का माहौल ऐसा लग रहा मानों हाउसफूल इडेन गार्डन में सचिन पाकिस्तान के खिलाफ क्रीज पर डटें हों..चिल्लाती भीड़ के बीच आखिरी ओवर में बारह रन बनाना हो.या फिर दुबई क्रिकेट स्टेडियम में नरेंद्र मोदी आज अप्रवासी भारतीयों को सम्बोधित करने वाले हों..
ये माहौल देखकर बड़े-बड़े ट्रेड पंडित ही नहीं..सिनेमा के दिग्गज इस कदर हैरान हैं कि आज एक नामी फिल्म समीक्षक ने महेश भट्ट के हवाले से कहा है कि "भारतीय फिल्मों का इतिहास जब लिखा जाएगा तो बाहुबली के पहले और बाहुबली के बाद जरूर लिखा जाएगा...
कुछ का हाल तो गजब बेहाल है.वो बाहुबली के वीएफएक्स को कमजोर और संगीत को बेकार बता रहें हैं..एक प्रख्यात फिल्म समीक्षक जो अभी कुछ दिन पहले "अनारकली आफ आरा" को सदी की सबसे महानतम फिल्म घोषित कर चुकें हैं,उन्हें इस फिल्म में नरेशन ही नहीं मिल रहा है..एक वामपंथी साहित्यकार को इसलिए दिक्कत है कि इस फिल्म में एक भी मुसलमान क्यों नही है..?
इधर कम्बख्त जनता है कि उसे न किसी ट्रेड पंडित की चिंता है न किसी समीक्षक की..न किसी साहित्यकार की..दुनिया भाँड़ में जाए उसे तो बस यही पता करना है कि "कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा" ?
मित्रों..फ्रायड ने एक जगह कहा कि "साहित्य अभुक्त काम का परिणाम है"..मुझे फ्रायड की ये बात साहित्य से एक किलो ज्यादा सिनेमा पर सटीक लगती है..
तभी तो गिनती की कालजयी और यथार्थ परक फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो हमारा लोकप्रिय भारतीय सिनेमा बाज़ारवाद का शिकार होकर हमारे सामने आज तक क्या परोसता रहा है...? वही पश्चिम का चकाचौंध..स्विटजरलैंड के आइस लैंड और लन्दन की सड़कें...कपड़ा न पहनने की कसम खा चूकी अभिनेत्री.. किसी बहाने हिरोइन को दबोचने वाला हीरो..फूहड़ कॉमेडी.बकवास डायलाग और सेक्स,इमोशन,ड्रामा का कॉकटेल...इसे ही देकर लोगों की दमित कामुकता को भुनाया जाता रहा है.
हर दशक में समय के साथ इनकी मात्रा और जरूरत बढ़ती गयी.आज उसी जरूरत का नतीजा है कि चाहें कहानी कुछ भी हो.. हीरो हीरोइन को बेड पर ले जाकर कुछ ऊंच-नीच न कर दे तब तक फिल्म कम्बख्त हीट नहीं मानीं जाती..चाहें वो किसी महान खिलाड़ी की बायोपिक फिल्म हो या बाजीराव पेशवा के वीरता की गाथा.इस सेक्सुली फ्रस्ट्रेट देश में हीरो की रोमांटिक इमेज एक निर्देशक को बनानी ही पड़ती है.क्योंकि निर्देशक को लगता है कि ये बाजार की मांग है..
शायद इस कारण से इन भारतीय फिल्मों ने जितना समाज को विकृत किया है..उतना शायद ही किसी ने किया हो..बॉलीवुड का एक बड़ा धड़ा एक अरसे से कथित वामपंथी प्रगतिशीलता का शिकार रहा है...और उससे बड़ा कारण ये भी रहा कि हमारा बॉलीवुड हॉलीवुड के पीछे आंख बंद करके भागता रहा है.
ये सब सोच के हैरानी होती है कि दुनिया के सबसे सम्पन्न बौद्धिक और सांस्कृतिक देश में भारत के फिल्मकार अपनी जड़ों को भूलकर पश्चिम क्यों भागने लगे ?...उस देश रहकर..जहां हजारों साल पहले भरत ने नाट्य शास्त्र जैसा अद्भुत और वैज्ञानिक ग्रन्थ लिख दिया था... ऐसा ग्रन्थ कि आज भी ध्वनि के बड़े से बड़े वैज्ञानिक हैरान हैं कि आखिर संस्कृत के एक श्लोक में ध्वनि की इतनी सूक्ष्मतम से सुक्ष्मतम गणना कैसे की जा सकती है....उस ध्वनि की, जिसे नापने के लिए हम आज तक कोई यन्त्र नहीं बना पाए.
नाट्यशास्त्र पढ़ने के बाद लगता है कि हजारों साल पहले इस देश में नाटक,गीत, संगीत को लेकर इतनी सूक्ष्म,वैज्ञानिक और मौलिक समझ विकसित थी कि हम तो आज कहीं नहीं हैं..। फिर भी हम भगे जा रहे..कहाँ ?
नाट्यशास्त्र छोड़िये...संस्कृत का नाम आते ही हमारे सामने कालीदास प्रगट हो जाते हैं..लेकिन सिर्फ वही क्यों संस्कृत में भास जैसे सैकड़ों महान नाटककर हुए हैं कि उनके सामने पॉपुलर वैश्विक साहित्य और नाटक कहीं नहीं ठहरता..भास के सिर्फ एक नाटक 'स्वप्नवासवदत्त' के आगे बड़े से बड़ा पॉपुलर रोमांटिक,थ्रीलर,सस्पेंस पानी भरने लगेगा.ऐसा मुझे लगता है.लेकिन ये बात उन भारतीय फिल्मकारों को आज तक समझ क्यों नहीं आई.?..जिनको नाट्यशास्त्र से पहले लंदन से फिल्म मेकिंग में डिप्लोमा करना ज्यादा जरूरी लगा....
बाहुबली.......
तीन घंटे की फिल्म में यदि 30 बार रोंगटे खड़े हो जाएं, तो लगता है कि निर्देशक ने फिल्म नहीं, इतिहास बनाया है। फिल्म देखते समय आदमी सोचने लगता है कि निर्देशक ने भारतीय इतिहास का कितना गहन अध्ययन किया है। अगर भव्यता की बात करें तो बाहुबली भारतीय सिनेमा की अबतक की सबसे भव्य फिल्म 'मुगलेआजम' को बहुत पीछे छोड़ देती है। तीन घंटे की फिल्म देखते समय आप तीन सेकेण्ड के लिए भी परदे से आँख नही हटा सकते।
पिछले दो साल के सबसे चर्चित सवाल "कंटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा" का उत्तर ले कर आयी फिल्म प्रारम्भ में ही दर्शक को ऐसा बांध देती है कि वह पल भर के लिए भी परदे से नजर नही हटा पाता। नायक के रणकौशल को देख कर आपके मुह से अनायास ही निकल पड़ता है- वाह! यही था हमारा इतिहास। ऐसे ही रहे होंगे समुद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ऐसे ही रहे होंगे प्रताप और शिवा, ऐसा ही रहा होगा बाजीराव। एक साथ धनुष से चार चार बाण चलाते बाहुबली और देवसेना का शौर्य आपको झूमने पर विवश कर देता है। तक्षक और पुष्यमित्र की कहानियां लिखते समय मेरे दिमाग में जो अद्भुत योद्धा घूमते रहते हैं, वे इस फिल्म में साक्षात् दीखते हैं। युद्ध के समय हवा में उड़ते सैनिकों का कौशल अकल्पनीय भले लगे, पर अतार्किक नही लगते बल्कि उसे देख कर आपको पुराणों में बर्णित अद्भुत युद्धकला पर विश्वास हो जाता है।
युगों बाद भारतीय सिनेमा के परदे पर कोई संस्कृत बोलता योद्धा दिखा है। युगों बाद परदे पर अपने रक्त से रुद्राभिषेक करता योद्धा दिखा है। युगों बाद भारतीय सिनेमा में भारत दिखा है।
आपने विश्व सिनेमा में स्त्री सौंदर्य के अनेकों प्रतिमान देखे होंगे, पर आप देवसेना के रूप में अनुष्का को देखिये, मैं दावे के साथ कहता हूँ आप कह उठेंगे- ऐसा कभी नही देखा। स्त्री को सदैव भोग्या के रूप में दिखाने वाले भारतीय फिल्मोद्योग के इतिहास की यह पहली फिल्म है जिसमे स्त्री अपनी पूरी गरिमा के साथ खड़ी दिखती है। यह पहली फिल्म है जिसमे प्रेम के दृश्योँ में भी स्त्री पुरुष का खिलौना नही दिखती। यहां महेश भट्ट जैसे देह व्यपारियों द्वारा परोसा जाने वाला प्रेम नहीं, बल्कि असित कुमार मिश्र की कहानियों वाला प्रेम दीखता है। यह पहली फिल्म है जिसने एक स्त्री की गरिमा के साथ न्याय किया है। यह पहली फिल्म है जिसने एक राजकुमारी की गरिमा के साथ न्याय किया है। देवसेना को उसके गौरव और मर्यादा की रक्षा के वचन के साथ महिष्मति ले आता बाहुबली जब पानी में उतर कर अपने कंधों और बाहुओं से रास्ता बनाता है और उसके कंधों पर चल कर देवसेना नाव पर चढ़ती है, तो बाहुबली एक पूर्ण पुरुष लगता है और दर्शक को अपने पुरुष होने पर गर्व होता है। देवसेना जब पुरे गर्व के साथ महिष्मति की सत्ता से टकराती है तो उसके गर्व को देख कर गर्व होता है।
प्रभास के रूप में फिल्मोद्योग को एक ऐसा नायक मिला है जो सचमुच महानायक लगता है, और राजमौली तो भारत के सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मकार साबित हो ही चुके। और अनुष्का, उसे यह एक फिल्म ही अबतक की सभी अभिनेत्रियों की रानी बना चुकी है।
बाहुबली में यदि कुछ कमजोर है, तो वह है संगीत। पर इसमें राजमौली का कोई दोष नहीं, फ़िल्मी दुनिया में आज कोई ऐसा संगीतकार बचा ही नहीं जो इस फिल्म लायक संगीत बना पाता। मैं सोच रहा हूँ कि काश! नौशाद या रवि जी रहे होते। पर सबके बावजूद मैं इस फिल्म को दस में ग्यारह नम्बर दूंगा।
बाहुबली सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि प्राचीन भारत की गौरव गाथा है। आपको समय निकाल कर बड़े परदे पर यह फिल्म देखनी ही चाहिए।
कंटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा, यह फिल्म देख कर ही जानिए।
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